गोभी की अच्छी किस्मे, खेती सम्पूर्ण जानकारी

गोभी की अच्छी किस्मे, खेती सम्पूर्ण जानकारी

               गोभी की अच्छी किस्मे, खेती सम्पूर्ण जानकारी

देश में फूलगोभी की काश्त व्यावसायिक स्तर पर की जाती है ! फूलगोभी की काश्त को हम तीन भागों में बांट सकते हैं ! अलग-अलग वर्ग के लिए उचित किस्म का चुनाव करना आवश्यक है ! 

उन्नत किस्में



पूसा कातकी :

यह एक अगेती किस्म है ! इसके पौधे मध्यम आकार के पत्ते नीले रग के व फूल छोटे-मध्यम आकार के होते हैं ! इसके फूल 60 दिन में तैयार हो जाते हैं ! इसकी पैदावार लगभग 50-60 क्विंटल प्रति एकड़ है !

हिसार-1 :

यह मध्यम पछेती किस्म है ! इसके फूल दर्मियाने बड़े, सुडौल और सफेद होते हैं जो 90 दिन में तैयार हो जाते हैं ! इसकी पैदावार लगभग 90 क्विंटल प्रति एकड़ है !

स्नोवाल-16 :

यह पछेती किस्म है ! इसके फूल सफेद, संगठित तथा मध्यम आकार के होते हैं ! इसके फूल 100-110 दिन में तैयार होते हैं और पैदावार लगभग 60 क्विंटल प्रति एकड़ है !

बिजाई का समय

अगेती फूलगोभी के लिए पौधशाला में बिजाई मई-जून में तथा पौधरोपण जून-जुलाई में की जाती है ! मध्यम मौसम की फूलगोभी के लिए पौधशाला में बिजाई मध्य जुलाई से अगस्त के पहले सप्ताह तक का समय उत्तम है ! 

पौधरोपण अगस्त से मध्यम सितम्बर में की जाती है ! पछेती किस्मों के लिए क्यारियों में बिजाई अक्तूबर से नवम्बर के पहले सप्ताह तक और पौध रोपाई नवम्बर से दिसम्बर में की जाती है ! बटनिंग (छोटे फूल) को रोकने के लिए सिफारिश की गई किस्मों की उचित समय पर बिजाई करें !

बीज की मात्रा

अगेती किस्मों के लिए 300-400 ग्राम प्रति एकड़ तथा मध्यम व पछेती किस्मों के लिए 250-300 ग्राम प्रति एकड़ की दर से बीज पर्याप्त होगा ! 

पौध तैयार करना

गोभी की पौध तैयार करने के लिए जमीन से 15 सें.मी. ऊँची 3x1 मीटर की क्यारियाँ बनायें ! एक एकड़ में पौध रोपने के लिए इस प्रकार की लगभग 15-20 क्यारियों की आवश्यकता पड़ती है ! 

क्यारियों की अच्छी प्रकार खुदाई करके मिट्टी को भुरभुरा बना लें और उसमें गोबर की सडी खाद की 2 सें.मी. मोटी तह बिछाकर मिट्टी में अच्छी तरह मिला लें ! बीज छिड़काव या पंक्तियों में बोयें और उसके बाद गोबर की सड़ी खाद की पतली तह से ढक दें ! 

अगेती किस्मों की पौध को तेज धूप से बचाने के लिए सरकण्डे के छप्पर से ढकना चाहिए जिससे पौध कम से कम मरेगी ! क्यारियों में पर्याप्त नमी रहनी चाहिए और पानी को फवारे से देना चाहिए ! 

रोपाई की विधि

अगेती फूलगोभ्ज्ञी के लिए डोलियाँ (मेढ़) इच्छित दूरी पर बनाई जाती हैं और स्वस्थ पौधों की डोलियों पर रोपाई की जाती है ! मध्यम व पछेती किस्मों के लिए इच्छित समतल क्यारिया" पौधों की रोपाई की जाती है ! बिना कोपल के पौधों की रोपाई नहीं करनी चाहिए ! 

अगेती गोभी में पौधों की अधिक से अधिक संख्या प्राप्त करने के लिए पौध रोपाई से 5-6 घंटे पहले डलिया है बीच हल्की सिंचाई करें ! वर्षा से भूमि कटाव द्वारा जड़ों को नंगा होने से रोकने के लिए पौधों के साथ मिट्टी चढ़ाना आवश्यक है ! 

पौधों की रोपाई करते समय निम्नलिखित दूरी रखें :

अगेती = 45x30 सें.मी. दर्मियानी = 60x60 सें.मी.
पछेती = 45x45 सें.मी. खाद एवं उर्वरक,
लगभग 20 टन गोबर की खाद, 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ डालें ! पूरी गोबर खाद, फास्फोरस तथा पोटाश और एक तिहाई नाइट्रोजन की मात्रा पौध लगाने से पहले देनी चाहिए ! बाकी नाइट्रोजन की मात्रा बाद में खड़ी फसल में दो बार करके छिड़क देनी चाहिए ! जिंक सल्फेट 8-10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से इस फसल के लिए उपयोगी पाया गया है !

सिंचाई

अगेती किस्मों की 5-6 दिन के अन्तर से तथा पछेती किस्मों में 10-15 दिन के अन्तर से सिंचाई करनी चाहिए ! फूल बनते समय खेत में काफी नमी होनी चाहिए ! अतः इस समय सिंचाई अवश्य करनी चाहिए !

निराई गोड़ाई और खरपतवार नियन्त्रण

फूलगोभी में खरपतवार नियन्त्रण के लिए फ्लुक्लोरोलिन नामक दवा 0.5-0.6 किलोग्राम (बैसालिन 45 प्रतिशत, 1-1.3 लीटर) या पैण्डीमैथालिन 0.4 किलोग्राम (स्टोम्प 30 प्रतिशत, 1.3 लीटर) प्रति एकड़ प्रयोग करें ! अगर खरपतवारनाशक दवाइयों के इस्तेमाल करने के बाद भी कुछ खरपतवार निकलें तो एक निराई खुरपी या कसोले से करें  !

आवला की खेती और कमाई पूर्ण जानकारी

आवला की खेती और कमाई पूर्ण जानकारी

                              आवला की खेती

आंवला हमारे देश का एक प्राचीन एवं उपयोगी फल है ! आंवला उष्ण जलवायु का वृक्ष है ! लेकिन इसे उपोष्ण तथा मृदु शीतोष्ण जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जाता है ! यह यूफोरबिएसी कुल का पौधा है जिसे इण्डियन गुजबेरी के नाम से जाना जाता है और इम्बलिका जीनस के अन्तर्गत आता है ! इसका वैज्ञानिक नाम इम्बलिका आफिसिनेलिस है !


संसार के विभिन्न देशों में आंवला लंका, बर्मा, चीन तथा भारत में पैदा होता है ! भारत में आंवला मुख्यत: उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, बंगाल, कर्नाटक, पंजाब व हरियाणा में पैदा होता है ! 

यह अत्यधिक उत्पादनशील, प्रचुर पोषक तत्वों से भरपूर और अद्वितीय औषधीय गुणों से युक्त होता है ! आंवला का फल विटामिन सी का बहुत बड़ा स्रोत है ! इसके 100 ग्राम गूदे में 500-750 मिलीग्राम विटामिन सी पाया जाता है ! केवल बारबेडोज चेरी में इससे अधिक विटामिन सी मिलता है, अन्य किसी फल में नहीं ! इसका फल पैक्टिन का प्रचुर स्रोत है ! 

इसके फलों, छाल और पतियों में टैनिन भी प्रचुर मात्रा में होता है ! विटामिन सी से भरपूर होने के कारण इसकी औषधीय महता बहुत ज्यादा है ! इसका परिरक्षण मुरब्बा, अचार, चटनी, शरबत, जैम, जैली, कैण्डी आदि उत्पादन के रूप में किया जाता है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी है ! फल सूखाकर कई दवाओं में प्रयोग होते हैं !

उपयुक्त भूमि एवं जलवायु

आंवला एक सहिष्णु फल है तथा विभिन्न प्रकार की मृदाओं जैसे हल्की अम्लीय से लवणीय/सोडियमयुक्त (पी.एच. मान 6.5 से 8.5 तक) में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है ! परन्तु इसके लिए अच्छे जल निकास वाली, उर्वर गहरी दोमट मिट्टी अच्छी रहती हैं !

आंवला के पौधों को प्रारम्भिक 3-4 वर्ष की आयु तक लू तथा पाले से बचाना चाहिए ! बड़े पौधे न्यूनतम सैंटीग्रेड तथा अधिकतम 46° तापमान सहन कर सकते है ! फूल बनने के लिए गर्म तापमान की तथा जुलाई-अगस्त के महीने में फल की वृद्धि के लिए अधिक आर्द्रता की आवश्यकता होती है ! सूखे की अवस्था में इसके फल गिरने लगते है तथा फलों की वृद्धि भी देर से होती है !

प्रमुख किस्में

शीघ्र पकने वाली (मध्य अक्तूबर-मध्य नवम्बर)

बनारसी : 

सर्वाधिक प्रचलित किस्म, फल बड़े (45-48 ग्राम प्रतिफल), चमकदार, कम रेशे युक्त, कम भण्डारण क्षमता, प्रति शाखा कम मादा पुष्प, स्वबंधता और फल झड़ने की समस्या ! मुरब्बा, आचार, संरक्षण हेतु उपयुक्त !

नरेन्द्र आंवला-5 (कृष्णा) : 

बनारसी किस्म से स्वचयनित किस्म, फल मध्यम आकार के (42-44 ग्राम प्रति फल), फलों पर भूरे रंग की धारियां, अन्य गुण बनारसी जैसे ! 

नरेन्द्र आंवला-१० (बलवन्त) : 

बनारसी किस्म के चयन से विकसित, फल मध्यम आकार (40-42 ग्राम प्रतिफल), फल गुलाबी धारियां युक्त, प्रतिशाखा अधिक मादा पुष्प ! मध्यम अवधि (मध्य नवम्बर-मध्य दिसम्बर)

फ्रांसिस (हाथीझूल) : 

भारी व झुकी हुई शाखाओं युक्त किस्म, बड़े फल (40-42 ग्राम प्रति फल)

नरेन्द्र आंवला-4 (कन्चन) : 

चकिया किस्म के चयन से विकसित, छोटे फल (30-32 ग्राम प्रतिफल), प्रतिशाखा अधिक मादा पुष्प, परिरक्षण हेतु उपयोग में लेते है ! नरेन्द्र आंवला-६ (अमृत) : यह भी चकिया के चयन से विकसित किस्म है ! लगभग रेशे विहिन किस्म, फल छोटे मध्यम आकार (32-35 ग्राम प्रति फल), कैण्डी, मुरब्बा बनाने हेतु सर्वोत्तम किस्म है !

नरेन्द्र आंवला-७ (नीलम) : 

यह फ्रांसिस किस्म के चयन से विकसित हैं ! फल मध्यम से बड़े आकार का लम्बाईयुक्त गोल और भार में 40 से 45 ग्राम, रेशे रहित ! फल नैकरोसिस रोग से मुक्त, प्रतिशाखा बहुत अधिक मादा पुष्प !
देर से पकने वाली (मध्य दिसम्बर से मध्य जनवरी) चकिया : यह प्रचलित किस्म सीधे बढ़ने वाली है, फल में अधिक रेशे, छोटे-मध्यम आकार के फल (30-32 ग्राम प्रति फल), भण्डारण क्षमता युक्त ! यह किस्म आचार बनाने हेतु उत्तम परागण के लिए यह किस्म बहुत अच्छी है !

प्रवर्धन (propagation)

आंवले का प्रवर्धन चश्मा (पैच बडिंग) द्वारा जुलाई से अगस्त तक किया जाता है ! जनवरी फरवरी के महीने में पके हुए फलों को सखाकर उनमें से बीज अलग कर लिया जात है ! बीजो को बोने से पहले कुछ देर पानी में डाल देना चाहिए ऊपर तैरते हुए बीजों को अलग कर देने चाहिए और जो बीज पानी में डूबे रहे उनको निकालकर सूखा ले ! 

पौधशाला की क्यारी 3 मीटर लम्बी और एक मीटर चौड़ी बनानी चाहिए ! खुदाई के बीच इस प्रकार की एक क्यारी में 40 किलोग्राम गोबर की पुरानी महीन खाद और पत्ती की महीन खाद मिट्टी में मिला देनी चाहिए ! क्यारी को अंतिम रूप देते समय इसे भूमि के धरातल से 15 से.मी. ऊंचा रखना चाहिए ! पुनः हर क्यारी के चारों ओर 20-25 से.मी. चौड़ा स्थान कृषि क्रियाएं करने के लिए छोड़ देना चाहिए ! 

आंवले के बीजों को 10-15 से.मी. के फासले पर बनाई गई पंक्तियों में 3-4 से.मी. के फासले पर एक से आधा से.मी. की गहराई में बो देना चाहिए ! पंक्तियां क्यारी की चौड़ाई में बनानी चाहिए ! बीजों की बोवाई मार्च-अप्रैल में अवश्य ही कर देनी चाहिए ! इस बीच तेज धूप से बचाव के लिए सिर्की या फूस की हल्की परत द्वारा कोमल पौधों को छाया प्रदान करनी चाहिए ! बोने के बाद बीज 2-3 हफ्ते में जम जाते है ! 

पौधशाला की क्यारी में जब पौधे 8-10 से.मी. की ऊंचाई के हो जाए तब इन्हें पूर्व तैयार की गई क्यारियों में 30 x 20 से.मी. के फासले पर प्रतिरोपित कर देना चाहिए ! जहां इन पौधों (मूलंवृतो) पर कलिकायन करनी हो ! मलवंत के उक्त 2 से 3 से.मी. लम्बाई और 0.5 से.मी. चौड़ाई के आयताकार रिक्त स्थान पर उसी माप के सायन की टहनी से पूर्व में निकाली गई आंखे (कली) के आयताकार पैबंद (पैच) साट (बांध) देना चाहिए ! तत्पश्चात् इस पैबंद को प्लास्टिक के फीते से सम्भाल के बांधना चाहिए तथा ऊभरी हुई आंख खुली रहनी चाहिए ! 

पैबंद बांधने के लिये प्लास्टिक के फीते प्रयोग किये जाने की दशा में कली का पैबंद जुड़ जाने के तुरंत बाद ही फीता खोल देना चाहिए देर से खोलने पर मूलवूत की वृद्धि के साथ-साथ फीते मूलवृत की छाल के गूदे में धंसते जाते है ! इससे पौधे की सुचारू रूप से वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है ! 

कली का पैबंद मूलवुत से लगभग दो सप्ताह में जुड़ जाता है ! इसके बाद पैबंद के जोड़ से लगभग 3 से भी ऊपर से मूलवृत को सिकटियर से संभालकर काट देना चाहिए, तब ही पैबंद की कली में फाव आ जाता है और उसमें वृद्धि होने लगती है ! इस तरह पैच बडिंग द्वारा आंवले का एक कलमी पौधा तैयार हो जाता है !

पौधा रोपण

आंवले की विभिन्न किस्मों को 8-9 मीटर की दूरी (कतार से कतार व पौधे से पौधा पर रोपना चाहिए ! प्रति एकड़ 72-56 पौधों की संख्या होगी ! रेखांकन अनुसार गड्ढे (1 x 1, 1 मीटर) के आकार के मई में खोद ले तथा 20-25 दिन तक खुला रखने के बाद प्रत्येक गड्ढे में 25-40 कि.ग्रा. सड़ी गोबर की खाद, आधा मीटर ऊपर की जमीन, 2 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट अच्छी तरह मिलाकर गड्ढे की भरपाई 15-20 से.मी. जमीन से ऊंची कर देनी चाहिए ! इसके बाद सिंचाई कर दे जिससे कि गड्ढे की मिट्टी नीचे बैठ जाए ! 

गड्ढे के बीच में जुलाई-अगस्त के महीने में गाची सहित पौधे का रोपण करे ! इसके तुरन्त बाद सिंचाई कर दे ! सिंचाई के साथ प्रति पौधा 30 मि.ली. क्लोरोपायरीफास ढीमक की रोकथाम के लिए अवश्य डाले ! आंवले के देशी बीजों को सीधे खेत में तैयार गड्ढों में बोकर एक वर्ष स्थापन के बाद स्वस्थ उन्नत किस्मों का चश्मा विधि से प्रत्यारोपण भी किया जा सकता है ! सिंचाई सुविधा होने पर पौधे का रोपण फरवरी में भी किया जा सकता है ! 

आंवल में स्वबंधता की समस्या के कारण एक खेत में एक से अधिक किस्मों जैसे कि एन.ए.-4, एन.ए.-6, एन.ए.-7 और चकिया किस्मों का रोपण करे ! चकिया लगाने से इनमें अधिक परागण होता है और फल भी ज्यादा लगते है ! पुराने आंवले के बीजू पौधों को शीर्ष कार्य (टॉप वर्किग) द्वारा अच्छी जाति में परिवर्तित किया जा सकता है !

सिंचाई

पूर्ण स्थापित आंवले के वृक्ष अत्यधिक सहिष्णु होते है तथा इन्हें नियमित सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है ! पहली सिंचाई खाद डालने के बाद फरवरी के महीने में दें ! फूल आने के समय (मध्य मार्च से मध्य अप्रैल) तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फूल झड़ जाएंगे ! 

फल बनने के बाद 10-15 दिन अन्तराल पर पानी लगाए ! बेसिन विधि से सिंचाई करना आंवले के लिए उपयुक्त पाया गया है ! ड्रिप सिंचाई पद्धति सर्वाधिक उत्पादन तथा पानी की बचत के लिए आदर्श मानी गई है !

खाद एवं उर्वरक  

पौधे के समुचित वृद्धि विकास एवं फलन के लिए खाद और उर्वरक की मात्रा भूमि की उर्वरकता, जलवायु, पौधे की आयु और उत्पादन पर निर्भर करती है ! एक साल के पौधे में 10 किलो गली सड़ी गोबर की खाद, 100 ग्राम नत्रजन, 50 ग्राम फासफोरस तथा 100 ग्राम पोटाश (शुद्ध) की मात्रा डालें ! अगले 10 साल तक इस मात्रा को दुगुना करते जाएं तथा 10 साल के बाद एक स्थिर मात्रा 100 किलोग्राम देशी खाद, 1000 ग्राम नत्रजन, 500 ग्राम फास्फोरस तथा 1000 ग्राम पोटाश डालनी चाहिए ! 

गोबर की खाद व फास्फोरस की पूरी मात्रा तथा नत्रजन व पोटाश की आधी मात्रा पौधे के थाले में जनवरी-फरवरी के महीने में डालें तथा बाकी बची हुई आधी नत्रजन व पोटाश खाद की मात्रा अगस्त के महीने में डालें ! इसके अलावा अगस्त-सितम्बर के माह में दो छिड़काव बोरोन तथा जिंक (0.4 प्रतिशत) के करने से फलों का गिरना कम हो जाता है तथा फलों की गुणवत्ता में भी सुधार होता है !

ट्रेनिंग और कांट-छांट

नव स्थापित आंवले के पौधों की काट-छांट इस प्रकार करनी चाहिए जिससे कम से कम 0.75-1 मीटर तक मुख्य तना सीधा एवं शाखा रहित रहे ! इसके बाद 4-6 शाखाए विभिन्न दिशाओं में इस प्रकार विकसित हो कि वृक्ष का ढांचा मजबूत एवं सन्तुलित रहे ! पौधो की मोडीफाईड सैन्टर लीडर विधि से ट्रेनिंग करनी चाहिए ! 

आंवला में नियमित कटाई-छंटाई की आवश्यकता नहीं होती ! फिर भी मरी हुई, टूटी हुई, कमजोर, बीमारीयुक्त व सघन टहनियों व जड़ों से निकली शाखाओं को काट देना चाहिए !

अन्तः फसल

आंवले के पौधे 3-4 साल बाद फल देना आरम्भ करते है ! इसलिए आरम्भ में जब पेड़ छोटे हो कतारों और पेड़ो की बीच की जगह का आर्थिक उपयोग करना चाहिए ! बीच की फसल का मुख्य उद्देश्य बाग से आय में वृद्धि करना है ! ऐसी कोई फसल न ली जाए जो आरम्भ ही में पेड़ो को अपनी लम्बाई और छाया से ढक दे ! बीच की फसल की पानी तथा अन्य आवश्यकताएं लगभग स्थाई पेड़ों की तरह होनी चाहिए ! इसलिए ऐसी सब्जियां (टमाटर, प्याज, पालक, मिर्च) जिनकी जड़ मिट्टी में कम गहराई तक जाती हो बीच की फसल के लिए बहुत अच्छी समझी जाती है ! 

मौसमी फसलों में दलहन (लोबिया, मटर, मसूर, उड़द, मूग, मैथी) की फसल ली जाए तो अच्छा रहता है ! फलों में बीच की फसल के लिए पपीता लिया जा सकता है !

अवरोधपर्त (मल्चिंग)

जैविक तथा अजैविक अवरोध पती की उपयोगिता विशेषकर शुष्क प्रक्षेत्रों में विशेष के पौधों के चारों और बेसिन में घास-फूस, धान की पराली, गन्ने की पत्तियां या काली पॉलीथीन बिछा देनी चाहिए ! इससे पानी का वाष्पीकरण कम हो जाता है ! खरपतवार नियन्त्रित रहते है तथा मूल तन्त्र में तापमान नियमित रहने के कारण फल की वृद्धि तथा फलन पर अनुकूल प्रभात पड़ता है !

फलों की तुड़ाई एवं उपज

पूर्ण विकसित फलों को सही समय पर तोड़ने से शेष फलों के आकार वृद्धि में सहायता मिलती है ! जब फलों का रंग हरे से हल्का हरा पीला पड़ जाए, रेशा बाहर से दिखने लगे तथा बीज का रंग सफेद से भूरा पड़ना शुरू हो जाए ऐसी अवस्था में ही फलों की तोड़ाई करें ! फलों की तोड़ाई में देरी करने से अगले वर्ष की उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ! 

कलमी आंवले के पौधे 3-4 साल में फल देना शुरू कर देते है जबकि बीजू पौधे 6-8 साल में फल देते हैं ! दस वर्ष के बाद औसतन 100-150 किलोग्राम फल प्रति वृक्ष प्रति साल प्राप्त हो जात है ! जबकि समुचित देखभाल और प्रबन्ध से पौधे 200 किलोग्राम प्रति वृक्ष प्रति वर्ष फल देने की क्षमता रखते है !

आंवले के खेती करने से 30,000 से 35,000 रूपये प्रति एकड़ प्रति वर्ष लाभ कमाया जा सकता है ! यदि बाजार में ठीक भाव मिले तो इससे भी ज्यादा लाभ कमाया जा सकता है !

प्रमुख कीट एवं नियन्त्रण 

  छाल भक्षक कीट 

यह एक हानिकारक कीट है ! कीट वृक्ष की छाल को खाता है तथा छिपने के लिये डाली में  ! गहराई तक सुरंग बना डालता है जिसके फलस्वरूप डाल/शाखा कमजोर पड़ जाती है ! नियन्त्रण हेतु सूखी शाखाओं को काट कर जला देवें ! 

एण्डोसल्फान 35 ई.सी. 2 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर शाखाओं तथा डालियों पर छिड़काव करें तथा साथ की सुरंग को साफ करके किसी पिचकारी की सहायता से 3 से 5 मिलीमीटर मिट्टी का तेल प्रति सुरंग डाले या फाहा बनाकर सुरंग के अन्दर रख दे एवं बाद में ऊपर से सुरंग को गीली मिट्टी से बंद कर देवे !

शाखा पर गांठ बनाने वाली सूण्डी 

इस कीट की काली सूण्डियां आंवले के विकसित हो रहे प्ररोहों के ऊपरी छोर पर गाठ बनाकर वृक्षों को थोड़ा-बहुत नुकसान पहुंचाती है ! इसकी रोकथाम के लिए उन शाखाओं को जिन पर उभरी हुई गांठे बन गई है नियमित रूप से तोडकर नष्ट करे ताकि उनके अन्दर काली सूण्डियां खत्म हो जाए और 2 मिलीलीटर पेराथीऑन प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करे !

प्रमुख बीमारियां एवं रोकथाम

आंवले का रोली रोग (रस्ट)

इसके प्रकोप से पत्तियों पर रोली के धब्बे बन जाते हैं ! पत्तों पर काले धब्बे बनते है जो कभी पूरे फल पर फैल जाते है ! रोगी फल पकने से पहले ही झड़ जाते है ! जिससे बहुत हानि होती है ! नियन्त्रण हेतु बेलीटोन 1 ग्राम या घुलनशील गन्धक 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसार से तीन छिडकाव जुलाई माह से एक महीने के अन्तराल से करने पर फलों के रोग का लगभग पूर्ण नियन्त्रण हो जाता है !

उत्तक क्षय (नैकरोसिस)

यह एक फिजियोलोजिकल डिसओरडर है ! फ्रांसिस (हाथीझूल) और बनारसी किस्मों में यह समस्या पाई जाती है ! नैकरोसिस में शुरू में फल के गुद्दे का रंग भूरा हो जाता है जो कि बाद में भूरे काले रंग में बदल जाता है ! इससे बचाव के लिए फल लगने के बाद सितम्बर के महीने से 10-15 के अन्तराल पर 0.6 प्रतिशत बोरेक्स के दो छिड़काव करने चाहिए !

डॉ0 एस.एस. सिन्धु, डॉ0 वी.पी. अहलावत और डॉ0 आई.एस. सोलन्की,
उद्यान विभाग, चौ. च. सि. हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार-125004

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                                     अरहर फसल की खेती और किस्मे 

अरहर फसल खरीफ के मौसम की प्रमुख दलहनी फसल है ! इसकी भरपूर फसल लेने के बाद गेहूँ की भी अच्छी पैदावार ली जा सकती है ! अरहर-गेहूँ का सभी फसलों से अच्छा फसल चक्र साबित हुआ है ! नई किस्में तकरीबन 20-29 प्रतिशत ज्यादा पैदावार देती हैं ! अतः हम किसानों को उन्नत किस्मों की बीजाई के लिए प्रेरित करते हैं ! 

अरहर की उन्नत किस्में

अरहर की निम्नलिखित किस्मों की सिफारिश की गई है !

1. टाई-21 :

यह किस्म काफी ऊँची बढ़वार लेती है और 160-170 दिनों में पक कर तैयार होती है ! यह किस्म अप्रैल (गेहूँ की कढ़ाई के बाद) से मध्य जून तक बोई जा सकती है ! इसका दाना मध्यम आकार का होता है ! इसकी पैदावार 20 मन प्रति एकड़ होती है !

2. उपास-120 : 

यह किस्म 140-145 दिनों में पककर तैयार हो जाती है ! इसकी ऊँचाई 250 सें.मी. तक होती है ! इसका दाना मध्यम आकार व हल्का भूरे रंग का होता है ! इसकी पैदावार 15-17 मन प्रति एकड़ तक होती है !

3. मानक : 

यह अगेती पकने वाली किस्म है व 135-140 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है ! यह किस्म 200-220 सें.मी. तक ऊँची होती है ! इसका दाना मध्यम आकार का व हल्का भूरे रंग का होता है ! औसत पैदावार 17-18 मन प्रति एकड़ होती है !

4. पारस : 

यह नई किस्म है और मानक से काफी मिलती है ! इसकी ऊँचाई 250 सें.मी. तक होती है व 140-145 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है ! इस किस्म की शुरू की बढ़वार ज्यादा है अतः यह किस्म पछेती बीजाई (जुलाई) के लिए भी उपयुक्त है ! इसकी पैदावार 18-20 मन प्रति एकड़ तक होती है !

सरसों राया तोरिया उन्नत किस्मे Mustard Raya Toria Farming Package Practices


भूमि व खेत की तैयारी

अच्छी जल निकास वाली दोमट से हल्की दोमट, अम्लीय व क्षारीय रहित भनि इस फसल के लिए उपयुक्त होती है ! 2-3 जुताई करके और सुहागा लगाकर अच्छी तरह खेत तैयार करें ताकि खरपतवार व ढेले न रहें !

बिजाई का समय

सिंचित दशा जहाँ दो फसलें लेते हों, वहाँ पर टाईप-21 की बिजाई मध्य मार्च से मध्य जून, उपास-120 मार्च से जुलाई के प्रथम सप्ताह; मानक व पारस जून से मध्य जुलाई !

राईजोबियम ठीके से बीज उपचार

200 मि.ली. या दो कप पानी में 60 ग्राम गुड़ या शक्कर मिलाकर घोलें  ! घोल को 5-6 किलो बीज पर डालें और ऊपर टीका छिड़क दें फिर बीज को हाथ से अच्छी तरह मिला लें और छाया में सुखाकर बिजाई करें !

बीज की मात्रा व बिजाई का तरीका

40-45 सें.मी. लाइन से लाइन का फासला रखें ! 5-6 किलो बीज प्रति एकड़/ मिश्रित फसल की दशा में लाइन से लाइन का फासला 50 सें.मी. रखें व बीच में एक लाईन मूंग या उड़द की बीजें  !

खाद

मिट्टी परीक्षण के आधार पर खाद का प्रयोग करें और वैसे आम सिफारिश 8 किलो शुद्ध नत्रजन (16-18 किलोग्राम यूरिया), 16 किलोग्राम शुद्ध फास्फोरस (100 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) प्रति एकड़ है ! सिंगल सुपर फास्फेट आखिरी जुताई के समय पोर करें व यूरिया (या 35 कि.ग्रा. डी.ए.पी.) छिड़क कर सुहागा लगाने के बाद पोर से लाइनों में बिजाई करें !

निराई गुड़ाई

25-45 दिनों बाद अच्छी तरह गुड़ाई करें ताकि खरपतवार न उग सके !

सिंचाई

अगर हो सके तो फूल आने पर एक सिंचाई करें ! यदि गर्मी में मिलवा फसल है ! तो सिंचाई मिलवा फसल के अनुसार करें !

हानिकारक कीड़े

फली बेधक कीड़ा इस फसल को काफी नुकसान पहुँचाता है ! इसलिए इस कीड़े की रोकथाम काफी आवश्यक है ! 50 प्रतिशत फली या जब सूण्डी दिखाई देने लगे तब इन दवाइयों का छिड़काव करें !
300 मि.ली. मोनोक्रोटोफास 36

या
75 मि.ली. साइपरमेथरीन 25 ई.सी.

या
120 मि.ली. फेनवलरेट 20 ई.सी.

215 मि.ली. डे मैथरीन 28 ई.सी. 300 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें ! क्योंकि यह फसल ऊँची बढ़ती है इसलिए छिड़काव की सुविधा के लिए 7 मीटर अरहर की पट्टी के बाद 3 मीटर खाली छोड़े, जिसमें खड़े होकर छिड़काव किया जा सके ! तीन मीटर खाली जगह में मूंग या उड़द की बिजाई करें !

Chane ki kisme kheti Gram cultivation hindi chickpea farming चने की खेती व् अच्छी किस्मे

Chane ki kisme kheti Gram cultivation hindi chickpea farming चने की खेती व् अच्छी किस्मे

चने की खेती व् अच्छी किस्मे

चना एक बहुत महत्वपूर्ण दलहन फसल है इसकी खेती रबी ऋतु में की जाती है। पूरे विश्व का 70 प्रतिशत भारत अकेला पैदावार करता है। 

भारत की अनाज वाली फसलों में चने का क्षेत्रफल तथा पैदावार के हिसाब से क्रमशः पांचवा व चौथा स्थान है। चना क्षेत्रफल व पैदावार अन्य दलहनी फसलों की तुलना में सबसे अधिक है। 

इसमें पाये जाने वाली तत्वों ने इसका महत्व और भी बढ़ा दिया है, इसमें पाये जाने वाले तत्वों में प्रोटीन (213), कार्बोहाइड्रेट (61.5) व वसा (4.5) मात्रा में होते हैं।


सिफारिष की गई चने की उन्नत किस्में:

देशी किस्में एवं विशेषताएं:

1. सी-235: 

यह किस्म तराई व सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए, दर्मियानी ऊंचाई कुछ ऊपर बढ़ने वाली, मध्यम (145-150 दिनों में), भूरे-पीले रंग के दाने, औसत पैदावार 8.0 शिवटल/एकड़ । इस किस्म में अंगमारी (ब्लाईट) सहनशील परन्तु उखेड़ा रोग लगता है।

2. हरियाणा चना नं.-1 : 

बरानी, सिंचिंत व पछेती बिजाई के लिए। कपास व धान के बाद समस्त हरियाणा, बोना व हल्का-हरा तना, हल्की हरी पत्तियां, लम्बी प्रारम्भिक शाखाएं व शेष छोटी, अगेती (135-140 दिनों में), आकर्षक पीले रंग के दाने, औसत पैदावार 8-10 शिवटल/एकड़ । यह किस्म शीघ्र पकने वाली अपेक्षाकृत फलीछेदक का कम आक्रमण, उखेड़ा सहनशील है।

3. हरियाणा चना नं.- 2,3,5 : 

हरियाणा के बारानी क्षेत्र को छोडकर सारे सिंचित क्षेत्रों में बोने के लिए सिफारिश, पौधे ऊंचे, कम फैलाव, लगभग सीधे बढ़ने वाले, इसकी पत्तियां चौडी व गहरे हरे रंग की, मध्यम (150160 दिनों में)व दाना मध्यम से मोटा व भूरा-पीले का दाना औसत पैदावार 8-10 विटल/एकड़ । उखेड़ा व जड़गलन के लिए रोगरोधी !

4. पी.बी.जी.7: 

सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए सिफारिश, पौधे ऊंचे व सीधे, मध्यम (159 दिनों में),दाना मध्यम व भूरे रंग का, औसत पैदावार 8.0 कंशिवटल/एकड़ । उखेड़ा व जड़गलन के लिए हल्का रोगरोधी व अंगमारी के लिए रोग रोधी

5. पी.बी.जी.4 3: 

ये किस्में बारानी व कम सिंचित क्षेत्रों के लिए, पौंधे सीधे व गहरे हरे रंग के होते हैं। मध्यम (160 दिनों में) दाना मोटा व भूरे -पीले रंग का ! औसत पैदावार 7.2-7.8 विटल/एकड़ । उखेड़ा व जड़गलन के लिए हल्का रोगरोधी व अंगमारी के लिए रोग रोधी !

6. जी.एन.जी. 1958: 

हरियाणा के बारानी क्षेत्रों को छोड़कर सभी क्षेत्रों के लिए, सीधे व गहरे हरे रंग के होते हैं। मध्यम (145-150 दिनों में) दाने भूरे-पीले रंग के औसत पैदावार 8.0-10.5 कंविटल/एकड़! उखेड़ा रोग के प्रति रोगरोधी

सिफारिश की गई काबुली किस्में एवं विशेषताएं:


1. हरियाणा काबली नं.1 : 

हरियाणा राज्य के बारानी क्षेत्र छोड़कर सारे क्षेत्रों में, अधिक शाखायें व फली प्रति पौधा, पौधा फैलावदार,मध्यम, दाना मध्यम आकार , गुलाबी सफेद, पकने में अच्छे ! औसत पैदावार 8-10 क्विटल/एकड। अन्य काबली किस्मों से अपेक्षाकृत उखेड़ा रोग नहीं लगता।

2. हरियाणा काबली नं.2 : 

हरियाणा राज्य के बारानी क्षेत्र छोड़कर सारे क्षेत्रों में, इस किस्म के पौधे बढ़वार में कम सीधे और हल्के हरे पत्ती वाले होते हैं, मध्यम, दाना मोटा आकार का सफेद होता है। औसत पैदावार 7-8 शिवटल/एकड।यह किस्म चने की मुख्य बीमारियों की रोगरोधी किस्म है।

3. एल.552: 

हरियाणा राज्य के बारानी क्षेत्र छोड़कर सारे क्षेत्रों में इस किस्म के पौधे लम्बे व सीधे होते हैं। मध्यम, दाना मोटा व क्रीमी सफेद रहता है। औसत पैदावार 7-8 क्विंटल/एकड। यह किस्म चने की मुख्य बीमारियों की रोगरोधी किस्म है।

1. बी.जी.1053: 

हरियाणा राज्य के बारानी क्षेत्र छोड़कर सारे क्षेत्रों में, इस किस्म के पौधे कम सीधे रहते हैं। मध्यम । दाना गोल व क्रिमीय सफेद रहता है। औसत पैदावार 8.0 विटल/एकड। यह किस्म चने की मुख्य बीमारियों की रोगरोधी किस्म है।

चने की बुवाई के लिए भूमि व उसकी तैयारी:

चना अच्छे जल निकास वाली दोमट रेतीली तथा हल्की मिट्टी में अच्छा होता है। खारी व कल्लर वाली मिट्टी इसके लिए अच्छी नहीं होती है। ढीली तथा हवादार मिट्टी इसके लिए अच्छी रहती है। 

जुलाई-अगस्त में डिस्क/मोल्ड बोर्ड हल से गहरी जुताई करें। इससे खरपतवार नष्ट हो जाते हैं और भूमि की काफी गहराई तक नमी पहुंच जाये। जो वर्षा का अधिकांश पानी आसानी से सोख लेती है। इससे चने की जड़ें आसानी से अधिक गहराई तक चली जाती हैं जो उसकी उपज को बढ़ाने में सहायक होती है।

बीज की मात्रा

देशी चने के लिए उपयक्त बीज मात्रा 15-16 किलोग्राम प्रति एकड़ है। हरियाण चना नं.3 के दानेमोटे होने के कारण इसका बीज 30-32 किलोग्राम प्रति एकड़ पर्याप्त है तथा काबली चने के लिए 36 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ पर्याप्त है। 25 प्रतिशत बीज की मात्रा बढ़ाकर पछेती बिजाई के लिए उपयोग करें।

बीजाई का समय

देशी चने की बिजाई का उपयुक्त समय मध्य अक्तूबर है। अगेती बोई गई फसल की बिजाई के समय औसत 30 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक होने पर उखेड़ा रोग लग जाता है। 

अच्छी पैदावार लेने के लिए मध्य अक्तूबर से 30 अक्तूबर तक देशी चने की बुवाई हो जानी चाहिए तथा काबुली चने को बोने का समय अक्तूबर का आखिरी सप्ताह

बीज उपचार

चने की फसल में बहुत से कीट व बीमारियां लगती है। इसके बुरे प्रभाव से बचने के लिए बीज उपचार करके ही बोना चाहिए, बीज को कीटों के प्रभाव से बचाने के लिए सबसे पहले फफूंदनाशी उसके बाद कीटनाशी और इसके बाद राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर लें । 

कार्बेन्डाजिम या मेन्कोजेब या थायरम की 1.5 से 2 ग्राम मात्रा प्रति एक किलो बीज को उपचारित करने के लिए काफी है। 

भूमि में दीमक लगने से रोकने के लिए क्लोरोपाइरीफोस 20 ई.सी. की 8 मिलीलीटर मात्रा से एक किलोग्राम बीज का उपचार कर लें। चने की अच्छी पैदावार के लिए बिजाई से पहले बीज को राइजोबियम एवं पी.स.बी. टीके से उपचारित करें। 

इस उपचार से जड़ों में ग्रन्थियां अच्छी बनती है। राइजोबियम का टीका करने का ढंग इस प्रकार है 50-60 ग्राम गुड़ को 2 कप पानी में घोल लें। फिर इस घोल को एक एकड़ के बीजों में मिला दें। गुड़ लगे बीजों परचने के टीके को डालकर हाथ से मिलाएं ताकि द्रव्य बीजों पर अच्छी तरह से लग जाये। इसके बाद उपचारित बीज को छाया में सुखाकर बीजें। 

राइजोबियम का टीका हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय,हिसार से माइक्रोबायोलाजी विभाग एवं किसान सेवा केन्द्र से प्राप्त किया जा सकता है।

बीजाई की विधि

ऐसी भूमि जिसमें पर्याप्त नमी हो, वहां चने की बिजाई पंक्तियों में 30 सें.मी. तथा हल्की से मध्यम भूमि में, जहां नमी कम हो वंहा पंक्तियों में 45 सें.मी. की दूरी पर सीड ड्रील या पोरा विधि से करें। 

चने की बिजाई दोहरी पंक्ति (30/60 सें.मी.) में भी की जाती है। दो पंक्तियों के बीच की दूरी 3. सैं.मी. तथा दोहरी कतारों में आपसी दूरी 60 सैं.मी. की दूरी रखें |
बारानी क्षेत्रों में गहरी (7 से 10 सैं.मी.) बिजाई करनी चाहिए। जबकि सिंचित क्षेत्रों में हल्की गहरी (5-7 सैं.मी.) रखें।


खाद व उर्वरक

सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के लिए सिफारिष की गई उर्वरक की मात्रा यूरिया(46) 12 किलो/एकड़ व सिंगल सुपर फॉस्फोरस (163) 100 किलो/एकड़ या डी.ए.पी. (46) 35 किलो/एकड़ के हिसाब से बिजाई के समय या आखिरी जुताई के समय खेत में मिलायें ।

सिंचित अवस्था में उपयुक्त पोषक तत्वों के साथ 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ प्रयोग करें।

जस्ते की कमी के लक्षण व उपचार

कमी के लक्षण पुरानी संयुक्त पत्तियों पर विशेषकर मुख्य प्ररोहों की पत्तों की, नाकों की हरिमाहीनता के रूप में आरम्भ होते हैं । ये लक्षण वृद्धि के 50-60 दिन बाद विकसित होते हैं। 
पत्तो कों को प्रभावित और अप्रभावित भागों में बांटने के लिए अंग्रेजी के ट आकृति की पट्टी बन जाना जस्ते की कमी का एक विशेष लक्षण है।

उपचार

भूमि में जस्ते की कमी है तब आखिरी जुताई से पहले 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ डालें । यह मात्रा आने वाली 2-3 फसलों के लिए काफी है।

सिंचाई

चने की बिजाई सिंचित व असिंचिंत दोनों क्षेत्रों में की जाती है। परन्तु सिंचाई करने से बहुत अच्छे परिणाम मिले हैं। 
अतः जहां हो सके, फूल आने से पहले, बिजाई के 45-60 दिन के बीच एक सिंचाई करें। अन्य सिंचाई तब करें यदि फसल को सिंचाई की आवश्यकता हो।

निराई-गुड़ाई

चने की अच्छी पैदावार लेने के लिए 2 निराई-गुड़ाई करना आवश्यक है। पहली गुड़ाई बिजाई से 25-30 दिन बाद तथा दूसरी 45-50 दिन पर करें। पछेती बिजाई में दूसरी गुड़ाई 55-60 दिन पर करें।

खरपतवार नियंत्रण

1 एलाक्लोर 50 ई.सी. की 3-4 लीटर प्रति हैक्टेयर बुवाई के तुरन्त बाद (तीन दिन के अन्दर)छिड़काव करें।
2 फ्लूक्लोरोलिन 45 प्रतिशत ई.सी. की 2.2 लीटर प्रति हैक्टेयर बुवाई के पहले छिड़काव करें।
3 पेंडीमिथलीन 30 ई.सी. की 3.3 लीटर प्रति हैक्टेयर बुवाई के बाद (तीन दिन के अन्दर)छिड़काव करें।

चने के रोगों का एकीकृत प्रबन्धन

खडी फसल पर प्रमुख रोग: उकठा रोग, मूल विगलन, ग्रीवा गलन, तना विभाजन एवं एस्कोकाइटा ब्लाइट।
  • गर्मियों में मिट्टी पलट हल से जुताई करने से मृदा जनित रोगों का नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। 
  • जिस खेत में उकठा रोग अधिक लगता हो उसमें 3-4 वर्ष तक चने की फसल नहीं लेनी चाहिए।
  • बुवाई से पूर्व बीज को 4.0 ग्राम ट्राईकोडरमा पाउडर से शोधित कर लेना चाहिए।
  • समय पर रोग रोधी/सहिष्णु प्रजातियों के प्रमाणित बीज की बुवाई करनी चाहिए। चने की उकठा रोधी प्रजातियों का ही चयन करें।
  • ट्राईकोडरमा पाउडर की 2.5 कि.ग्रा. मात्रा को 60-75 कि.ग्रा., गोबर की खाद अथवा वर्मीकम्पोस्ट में मिलाकर प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई करने से पूर्व खेत में मिलाने से मृदा जनित रोगों जैसे उकठा, ग्रीवागलन, मूल विगलन तथा तना विगलन आदि रोगों के प्रबन्धन करने में सहायता मिलती है।
  • एस्कोकाइटा ब्लाइट रोग की रोकथाम के लिए शुरूआती लक्षण दिखाई देते ही कापर आक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्लू, पी. (कवक नाशी) की 3 किग्रा. मात्रा प्रति हैक्ट.500-600 लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 2-3 छिड़काव 10 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार करें।


चने के कीटों का एकीकृत प्रबन्धन

  • समय से बुवाई करनी चाहिए।
  • छिटपुट बुवाई नहीं करनी चाहिए।
  • थोड़ी-थोड़ी दूर पर सूखी घास के छोटे-छोटे ढेर को रख कर कटुआ कीट की छिपी हुई इंडियों को प्रातः खोजकर मार देना चाहिए।
  • चने के साथ अलसी,सरसों, गेहूं या धनियों की सह फसली खेती करने से फली बेधक कीट से होने वाली हानि कम हो जाती है।
  • खेत के चारो ओं एवं लाइनों के मध्य अफ्रीकन जाइन्ट गेंदे को ट्रैप क्राप के रूप में प्रयोग करना चाहिए।
  • प्रति हेक्टेयर की दर से 50-60 बर्ड पर्चर लगाना चाहिए।
  • फूल एवं फलियां बनते समय सप्ताह के अन्तराल पर निरीक्षण अवश्य करना चाहिए।
  • फली बेधक के लिए 5 गंधपाश प्रति हैक्टेयर की दर से 50 मीटर की दूरी पर लगाकर भी निरीक्षण किया जा सकता है।
  • निरीक्षण में (कटुआ कीट, फलीबेधक एवं कूबड़ कीट) किसी भी कीट के आर्थिक क्षति स्तर पर पहुंचने पर निम्नलिखित कीट नाशियों में से किसी एक को उनके सामने लिखित मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से बुरकाव अथवा 700-800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
  • क्यूनालफास 25 ई.सी.का 2.0 लीटर या मैलाथियान 50 ई.सी. 2.0 लीटर या
  • फेनवेलरेट 20 ई.सी. का 1 लीटर या
  • फेनवेलरेट 0.4 प्रतिशत धूल 25 कि.ग्रा. या आवश्यकता पड़ने पर दूसरा छिड़काव / बुरकाव करें। एक ही कीटनाशी का दो बार प्रयोग न करें।

उपज बढ़ाने सम्बन्धी संकेत:

  • उन्नत किस्मों का प्रयोग करें।
  • दीमक की रोकथाम के लिए बीज का उपचार अवष्य करें।
  • चने के बीज को राइजोबियम बसीका लगाकर सही ढंग से समय पर बिजाई करें।
  • सिफारिष की गई उर्वरक तथा राइजोबियम टीके का प्रयोग अवष्य करें।
  • जरूरत से ज्यादा सिंचाई न करें ।
  • खरपतवारों की समय पर रोकथाम करें।
  • 2 बरानी क्षेत्रों में चने में फूल आने के समय 2 प्रतिषत यूरिया का स्प्रे करें। 10 दिन बाद फिर एक स्प्रे करें। ऐसा करने से पैदावार बढ़ती है।