आवला की खेती
आंवला हमारे देश का एक प्राचीन एवं उपयोगी फल है ! आंवला उष्ण जलवायु
का वृक्ष है ! लेकिन इसे उपोष्ण तथा मृदु शीतोष्ण जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया
जाता है ! यह यूफोरबिएसी कुल का पौधा है जिसे इण्डियन गुजबेरी के नाम से जाना जाता
है और इम्बलिका जीनस के अन्तर्गत आता है ! इसका वैज्ञानिक नाम इम्बलिका आफिसिनेलिस
है !
संसार के विभिन्न देशों में आंवला लंका, बर्मा,
चीन तथा भारत में पैदा होता है ! भारत में आंवला मुख्यत: उत्तर
प्रदेश, उत्तरांचल, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, बंगाल,
कर्नाटक, पंजाब व हरियाणा में पैदा होता है !
यह
अत्यधिक उत्पादनशील, प्रचुर पोषक तत्वों से भरपूर और
अद्वितीय औषधीय गुणों से युक्त होता है ! आंवला का फल विटामिन सी का बहुत बड़ा
स्रोत है ! इसके 100 ग्राम गूदे में 500-750 मिलीग्राम विटामिन सी पाया जाता है ! केवल बारबेडोज चेरी में इससे अधिक
विटामिन सी मिलता है, अन्य किसी फल में नहीं ! इसका फल
पैक्टिन का प्रचुर स्रोत है !
इसके फलों, छाल और पतियों में
टैनिन भी प्रचुर मात्रा में होता है ! विटामिन सी से भरपूर होने के कारण इसकी
औषधीय महता बहुत ज्यादा है ! इसका परिरक्षण मुरब्बा, अचार,
चटनी, शरबत, जैम,
जैली, कैण्डी आदि उत्पादन के
रूप में किया जाता है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी है ! फल सूखाकर कई
दवाओं में प्रयोग होते हैं !
उपयुक्त भूमि एवं जलवायु
आंवला एक सहिष्णु फल है तथा विभिन्न प्रकार की मृदाओं जैसे हल्की
अम्लीय से लवणीय/सोडियमयुक्त (पी.एच. मान 6.5 से 8.5 तक) में सफलतापूर्वक
उगाया जा सकता है ! परन्तु इसके लिए अच्छे जल निकास वाली, उर्वर
गहरी दोमट मिट्टी अच्छी रहती हैं !
आंवला के पौधों को प्रारम्भिक 3-4 वर्ष की आयु तक लू तथा पाले से बचाना चाहिए ! बड़े
पौधे न्यूनतम 0° सैंटीग्रेड तथा अधिकतम 46° तापमान सहन कर सकते है ! फूल बनने के लिए गर्म तापमान की तथा जुलाई-अगस्त
के महीने में फल की वृद्धि के लिए अधिक आर्द्रता की आवश्यकता होती है ! सूखे की
अवस्था में इसके फल गिरने लगते है तथा फलों की वृद्धि भी देर से होती है !
प्रमुख किस्में
शीघ्र पकने वाली (मध्य अक्तूबर-मध्य नवम्बर)
बनारसी :
सर्वाधिक प्रचलित किस्म, फल बड़े (45-48 ग्राम प्रतिफल), चमकदार, कम
रेशे युक्त, कम भण्डारण क्षमता, प्रति
शाखा कम मादा पुष्प, स्वबंधता और फल झड़ने की समस्या !
मुरब्बा, आचार, संरक्षण हेतु उपयुक्त !
नरेन्द्र आंवला-5 (कृष्णा) :
बनारसी किस्म से स्वचयनित किस्म, फल
मध्यम आकार के (42-44 ग्राम प्रति फल), फलों पर भूरे रंग की धारियां, अन्य गुण बनारसी जैसे
!
नरेन्द्र आंवला-१० (बलवन्त) :
बनारसी किस्म के चयन से विकसित, फल मध्यम आकार (40-42 ग्राम प्रतिफल), फल गुलाबी धारियां युक्त, प्रतिशाखा अधिक मादा पुष्प
! मध्यम अवधि (मध्य नवम्बर-मध्य दिसम्बर)
फ्रांसिस (हाथीझूल) :
भारी व झुकी हुई शाखाओं युक्त किस्म, बड़े फल
(40-42 ग्राम प्रति फल)
नरेन्द्र आंवला-4 (कन्चन) :
चकिया किस्म के चयन से विकसित, छोटे फल
(30-32 ग्राम प्रतिफल), प्रतिशाखा अधिक
मादा पुष्प, परिरक्षण हेतु उपयोग में लेते है ! नरेन्द्र
आंवला-६ (अमृत) : यह भी चकिया के चयन से विकसित किस्म है ! लगभग रेशे विहिन किस्म,
फल छोटे मध्यम आकार (32-35 ग्राम प्रति फल),
कैण्डी, मुरब्बा बनाने हेतु सर्वोत्तम किस्म
है !
नरेन्द्र आंवला-७ (नीलम) :
यह फ्रांसिस किस्म के चयन से विकसित हैं !
फल मध्यम से बड़े
आकार का लम्बाईयुक्त गोल और भार में 40 से 45
ग्राम, रेशे रहित ! फल नैकरोसिस रोग से मुक्त,
प्रतिशाखा बहुत अधिक मादा पुष्प !
देर से पकने वाली (मध्य दिसम्बर से मध्य जनवरी) चकिया : यह प्रचलित
किस्म सीधे बढ़ने वाली है, फल में अधिक रेशे, छोटे-मध्यम
आकार के फल (30-32 ग्राम प्रति फल), भण्डारण
क्षमता युक्त ! यह किस्म आचार बनाने हेतु उत्तम परागण के लिए यह किस्म बहुत अच्छी
है !
प्रवर्धन (propagation)
आंवले का प्रवर्धन चश्मा (पैच बडिंग) द्वारा जुलाई से अगस्त तक किया
जाता है ! जनवरी
फरवरी के महीने में पके हुए फलों को सखाकर उनमें से बीज
अलग कर लिया जात है ! बीजो को बोने से पहले कुछ देर पानी में डाल देना चाहिए ऊपर
तैरते हुए बीजों को अलग कर देने चाहिए और जो बीज पानी में डूबे रहे उनको निकालकर
सूखा ले !
पौधशाला की क्यारी 3 मीटर लम्बी और एक मीटर चौड़ी बनानी चाहिए ! खुदाई के
बीच इस प्रकार की एक क्यारी में 40 किलोग्राम गोबर की पुरानी
महीन खाद और पत्ती की महीन खाद मिट्टी में मिला देनी चाहिए ! क्यारी को अंतिम रूप
देते समय इसे भूमि के धरातल से 15 से.मी. ऊंचा रखना चाहिए !
पुनः हर क्यारी के चारों ओर 20-25 से.मी. चौड़ा स्थान कृषि
क्रियाएं करने के लिए छोड़ देना चाहिए !
आंवले के बीजों को 10-15 से.मी. के फासले पर बनाई गई पंक्तियों में 3-4 से.मी.
के फासले पर एक से आधा से.मी. की गहराई में बो देना चाहिए ! पंक्तियां क्यारी की
चौड़ाई में बनानी चाहिए ! बीजों की बोवाई मार्च-अप्रैल में अवश्य ही कर देनी चाहिए
! इस बीच तेज धूप से बचाव के लिए सिर्की या फूस की हल्की परत द्वारा कोमल पौधों को
छाया प्रदान करनी चाहिए ! बोने के बाद बीज 2-3 हफ्ते में जम
जाते है !
पौधशाला की क्यारी में जब पौधे 8-10 से.मी. की
ऊंचाई के हो जाए तब इन्हें पूर्व तैयार की गई क्यारियों में 30 x 20 से.मी. के फासले पर प्रतिरोपित कर देना चाहिए ! जहां इन पौधों (मूलंवृतो)
पर कलिकायन करनी हो ! मलवंत के उक्त 2 से 3 से.मी. लम्बाई और 0.5 से.मी. चौड़ाई के आयताकार
रिक्त स्थान पर उसी माप के सायन की टहनी से पूर्व में निकाली गई आंखे (कली) के
आयताकार पैबंद (पैच) साट (बांध) देना चाहिए ! तत्पश्चात् इस पैबंद को प्लास्टिक के
फीते से सम्भाल के बांधना चाहिए तथा ऊभरी हुई आंख खुली रहनी चाहिए !
पैबंद बांधने
के लिये प्लास्टिक के फीते प्रयोग किये जाने की दशा में कली का पैबंद जुड़ जाने के
तुरंत बाद ही फीता खोल देना चाहिए देर से खोलने पर मूलवूत की वृद्धि के साथ-साथ
फीते मूलवृत की छाल के गूदे में धंसते जाते है ! इससे पौधे की सुचारू रूप से
वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है !
कली का पैबंद मूलवुत से लगभग दो सप्ताह में
जुड़ जाता है ! इसके बाद पैबंद के जोड़ से लगभग 3 से भी ऊपर
से मूलवृत को सिकटियर से संभालकर काट देना चाहिए, तब ही
पैबंद की कली में फाव आ जाता है और उसमें वृद्धि होने लगती है ! इस तरह पैच बडिंग
द्वारा आंवले का एक कलमी पौधा तैयार हो जाता है !
पौधा रोपण
आंवले की विभिन्न किस्मों को 8-9 मीटर की दूरी (कतार से कतार व पौधे से पौधा पर
रोपना चाहिए ! प्रति एकड़ 72-56 पौधों की संख्या होगी !
रेखांकन अनुसार गड्ढे (1 x 1, 1 मीटर) के आकार के मई में खोद
ले तथा 20-25 दिन तक खुला रखने के बाद प्रत्येक गड्ढे में 25-40
कि.ग्रा. सड़ी गोबर की खाद, आधा मीटर ऊपर की
जमीन, 2 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट अच्छी तरह मिलाकर गड्ढे की भरपाई
15-20 से.मी. जमीन से ऊंची कर देनी चाहिए ! इसके बाद सिंचाई
कर दे जिससे कि गड्ढे की मिट्टी नीचे बैठ जाए !
गड्ढे के बीच में जुलाई-अगस्त के
महीने में गाची सहित पौधे का रोपण करे ! इसके तुरन्त बाद सिंचाई कर दे ! सिंचाई के
साथ प्रति पौधा 30 मि.ली. क्लोरोपायरीफास ढीमक की रोकथाम के
लिए अवश्य डाले ! आंवले के देशी बीजों को सीधे खेत में तैयार गड्ढों में बोकर एक
वर्ष स्थापन के बाद स्वस्थ उन्नत किस्मों का चश्मा विधि से प्रत्यारोपण भी किया जा
सकता है ! सिंचाई सुविधा होने पर पौधे का रोपण फरवरी में भी किया जा सकता है !
आंवल में स्वबंधता की समस्या के कारण एक खेत में एक से अधिक किस्मों जैसे कि
एन.ए.-4, एन.ए.-6, एन.ए.-7 और चकिया किस्मों का रोपण करे ! चकिया लगाने से इनमें अधिक परागण होता है
और फल भी ज्यादा लगते है ! पुराने आंवले के बीजू पौधों को शीर्ष कार्य (टॉप वर्किग)
द्वारा अच्छी जाति में परिवर्तित किया जा सकता है !
सिंचाई
पूर्ण स्थापित आंवले के वृक्ष अत्यधिक सहिष्णु होते है तथा इन्हें
नियमित सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है ! पहली सिंचाई खाद डालने के बाद फरवरी के
महीने में दें ! फूल आने के समय (मध्य मार्च से मध्य अप्रैल) तक सिंचाई नहीं करनी
चाहिए अन्यथा फूल झड़ जाएंगे !
फल बनने के बाद 10-15 दिन अन्तराल पर पानी
लगाए ! बेसिन विधि से सिंचाई करना आंवले के लिए उपयुक्त पाया गया है ! ड्रिप
सिंचाई पद्धति सर्वाधिक उत्पादन तथा पानी की बचत के लिए आदर्श मानी गई है !
खाद एवं उर्वरक
पौधे के समुचित वृद्धि विकास एवं फलन के लिए खाद और उर्वरक की मात्रा
भूमि की उर्वरकता, जलवायु, पौधे की आयु और
उत्पादन पर निर्भर करती है ! एक साल के पौधे में 10 किलो गली
सड़ी गोबर की खाद, 100 ग्राम नत्रजन, 50 ग्राम फासफोरस तथा 100 ग्राम पोटाश (शुद्ध) की
मात्रा डालें ! अगले 10 साल तक इस मात्रा को दुगुना करते
जाएं तथा 10 साल के बाद एक
स्थिर मात्रा 100 किलोग्राम देशी खाद, 1000 ग्राम
नत्रजन, 500 ग्राम फास्फोरस तथा 1000 ग्राम
पोटाश डालनी चाहिए !
गोबर की खाद व फास्फोरस की पूरी मात्रा तथा नत्रजन व पोटाश की
आधी मात्रा पौधे के थाले में जनवरी-फरवरी के महीने में डालें तथा बाकी बची हुई आधी
नत्रजन व पोटाश खाद की मात्रा अगस्त के महीने में डालें ! इसके अलावा
अगस्त-सितम्बर के माह में दो छिड़काव बोरोन तथा जिंक (0.4 प्रतिशत)
के करने से फलों का गिरना कम हो जाता है तथा फलों की गुणवत्ता में भी सुधार होता
है !
ट्रेनिंग और कांट-छांट
नव स्थापित आंवले के पौधों की काट-छांट इस प्रकार करनी चाहिए जिससे
कम से कम 0.75-1
मीटर तक मुख्य तना सीधा एवं शाखा रहित रहे ! इसके बाद 4-6 शाखाए विभिन्न दिशाओं में इस प्रकार विकसित हो कि वृक्ष का ढांचा मजबूत
एवं सन्तुलित रहे ! पौधो की मोडीफाईड सैन्टर लीडर विधि से ट्रेनिंग करनी चाहिए !
आंवला में नियमित
कटाई-छंटाई की आवश्यकता नहीं होती ! फिर भी मरी हुई, टूटी हुई, कमजोर, बीमारीयुक्त व सघन टहनियों व जड़ों से निकली
शाखाओं को काट देना चाहिए !
अन्तः फसल
आंवले के पौधे 3-4 साल बाद फल देना आरम्भ करते है ! इसलिए आरम्भ में
जब पेड़ छोटे हो कतारों और पेड़ो की बीच की जगह का आर्थिक उपयोग करना चाहिए ! बीच
की फसल का मुख्य उद्देश्य बाग से आय में वृद्धि करना है ! ऐसी कोई फसल न ली जाए जो
आरम्भ ही में पेड़ो को अपनी लम्बाई और छाया से ढक दे ! बीच की फसल की पानी तथा
अन्य आवश्यकताएं लगभग स्थाई पेड़ों की तरह होनी चाहिए ! इसलिए ऐसी सब्जियां (टमाटर,
प्याज, पालक, मिर्च)
जिनकी जड़ मिट्टी में कम गहराई तक जाती हो बीच की फसल के लिए बहुत अच्छी समझी जाती
है !
मौसमी फसलों में दलहन (लोबिया, मटर, मसूर, उड़द, मूग, मैथी) की फसल ली जाए तो अच्छा रहता है ! फलों में बीच की फसल के लिए पपीता
लिया जा सकता है !
अवरोधपर्त (मल्चिंग)
जैविक तथा अजैविक अवरोध पती की उपयोगिता विशेषकर शुष्क प्रक्षेत्रों
में विशेष के पौधों के चारों और बेसिन में घास-फूस, धान की पराली, गन्ने की पत्तियां या काली पॉलीथीन बिछा देनी चाहिए ! इससे पानी का
वाष्पीकरण कम हो जाता है ! खरपतवार नियन्त्रित रहते है तथा मूल
तन्त्र में तापमान नियमित रहने के कारण फल की वृद्धि तथा फलन पर अनुकूल प्रभात
पड़ता है !
फलों की तुड़ाई एवं उपज
पूर्ण विकसित फलों को सही समय पर तोड़ने से शेष फलों के आकार वृद्धि
में सहायता मिलती है ! जब फलों का रंग हरे से हल्का हरा पीला पड़ जाए, रेशा
बाहर से दिखने लगे तथा बीज का रंग सफेद से भूरा पड़ना शुरू हो जाए ऐसी अवस्था में
ही फलों की तोड़ाई करें ! फलों की तोड़ाई में देरी करने से अगले वर्ष की उपज पर
विपरीत प्रभाव पड़ता है !
कलमी आंवले के पौधे 3-4 साल में फल
देना शुरू कर देते है जबकि बीजू पौधे 6-8 साल में फल देते
हैं ! दस वर्ष के बाद औसतन 100-150 किलोग्राम फल प्रति वृक्ष
प्रति साल प्राप्त हो जात है ! जबकि समुचित देखभाल और प्रबन्ध से पौधे 200 किलोग्राम प्रति वृक्ष प्रति वर्ष फल देने की क्षमता रखते है !
आंवले के खेती करने से 30,000 से 35,000 रूपये प्रति
एकड़ प्रति वर्ष लाभ कमाया जा सकता है ! यदि बाजार में ठीक भाव मिले तो इससे भी
ज्यादा लाभ कमाया जा सकता है !
प्रमुख कीट एवं नियन्त्रण
छाल भक्षक कीट
यह एक हानिकारक कीट है ! कीट वृक्ष की छाल को खाता है तथा छिपने के लिये डाली में ! गहराई तक सुरंग बना डालता है जिसके फलस्वरूप डाल/शाखा कमजोर पड़ जाती है ! नियन्त्रण हेतु सूखी शाखाओं को काट कर जला देवें !
एण्डोसल्फान 35 ई.सी. 2 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर शाखाओं तथा डालियों पर छिड़काव करें तथा साथ की सुरंग को साफ करके किसी पिचकारी की सहायता से 3 से 5 मिलीमीटर मिट्टी का तेल प्रति सुरंग डाले या फाहा बनाकर सुरंग के अन्दर रख दे एवं बाद में ऊपर से सुरंग को गीली मिट्टी से बंद कर देवे !
शाखा पर गांठ बनाने वाली सूण्डी
इस कीट की काली सूण्डियां आंवले के विकसित हो रहे प्ररोहों के ऊपरी
छोर पर गाठ बनाकर वृक्षों को थोड़ा-बहुत नुकसान पहुंचाती है ! इसकी रोकथाम के लिए
उन शाखाओं को जिन पर उभरी हुई गांठे बन गई है नियमित रूप से तोडकर नष्ट
करे ताकि उनके अन्दर काली सूण्डियां खत्म हो जाए और 2 मिलीलीटर
पेराथीऑन प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करे !
प्रमुख बीमारियां एवं रोकथाम
आंवले का रोली रोग (रस्ट)
इसके प्रकोप से पत्तियों पर रोली के धब्बे बन जाते हैं ! पत्तों पर
काले धब्बे बनते है जो कभी पूरे फल पर फैल जाते है ! रोगी फल पकने से पहले ही झड़
जाते है ! जिससे बहुत हानि होती है ! नियन्त्रण हेतु बेलीटोन 1 ग्राम
या घुलनशील गन्धक 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसार से तीन
छिडकाव जुलाई माह से एक महीने के अन्तराल से करने पर फलों के रोग का लगभग पूर्ण
नियन्त्रण हो जाता है !
उत्तक क्षय (नैकरोसिस)
यह एक फिजियोलोजिकल डिसओरडर है ! फ्रांसिस (हाथीझूल) और बनारसी
किस्मों में यह समस्या पाई जाती है ! नैकरोसिस में शुरू में फल के गुद्दे का रंग
भूरा हो जाता है जो कि बाद में भूरे काले रंग में बदल जाता है ! इससे बचाव के लिए
फल लगने के बाद सितम्बर के महीने से 10-15 के अन्तराल पर 0.6 प्रतिशत
बोरेक्स के दो छिड़काव करने चाहिए !
डॉ0 एस.एस. सिन्धु, डॉ0 वी.पी. अहलावत और डॉ0 आई.एस. सोलन्की,
उद्यान विभाग, चौ. च. सि. हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार-125004
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