Nimbu Ghas करोडो की विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाली निम्बू घास की खेती

Nimbu Ghas करोडो की विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाली निम्बू घास की खेती

                                        Lemon Grass farming निम्बू घास की खेती

घास की पहचान घास बहुवर्षीय होती है तथा सूखा सहन कर सकती है ! प्रारंभिक अवस्था में तना की वृद्धि नहीं होती है ! पत्तियां 120 से 130 सेंटीमीटर लंबी तथा 175 से 200 सेंटीमीटर चौड़ी होती हैं !

तना पुष्पन के समय बढ़ता है तथा लंबाई 2.5 मीटर से 3.25 मीटर तक हो जाती है ! 20 से 80 कल कल्ले/ पौधे होते हैं! आधार के पास की पर्ण सीध लाल बैंगनी रंग की होती है तथा पर्ण फलक गहरा हरा होता है ! तना भी बैंगनी लाल रंग का होता है !

इसका पुष्पक्रम पेनिकल होता है जो शिर्ष में लगभग 8 से 10 पर्व संधि पर प्रत्येक पर्ण के कक्ष से निकलती है ! तने के शीर्ष भाग में पुष्पक्रम लगभग 75 सेंटीमीटर से 120 सेंटीमीटर लंबाई में होता है !

लाल बैंगनी रंग की घास वास्तविक लेमन घास ( lemon grass) है तथा इसी से ओ.डी 19 किस्म चयनित की गई है जो लेमन घास अनुसंधान केंद्र ओडाक्कली केरल से अनुशंसित की गई है !

इसकी दूसरी किस्म उप प्रजाति अलबीसेंस होती है ! जिसका तना सफेद होता है परंतु यह गुणवत्ता में लाल बैंगनी तना वाली किस्म से हीन होती है !

महत्व

नींबू घास ( lemon grass) का महत्व उसकी सुगंधित पत्तियों के कारण हैं ! पत्तियों से वाष्प आसवन के द्वारा तेल प्राप्त होता है ! जिसका उपयोग कॉस्मेटिक्स सौंदर्य प्रसाधन साबुन कीटनाशक एवं दबाव में होता है !

इस तेल का मुख्य घटक सिन्ट्राल (80-90) होता है ! सिन्ट्राल से प्रारंभ करके अल्फा आयोनोन तथा वीटा आयोनोन तैयार किए जाते हैं ! वीटा आयोनोन के द्वारा विटामिन ए संश्लेषित किया जाता है !

अल्फा आयोनोन से गंध द्रव्य बनाने के लिए अनेक सगंध रसायन संश्लेषित किए जाते हैं ! यह लगभग 30,000 हेक्टेयर क्षेत्र में केरल में उगाई जाती है ! एवं 90% उत्पादन निर्यात किया जाता है जिससे लगभग 10 करोड़ की विदेशी मुद्रा अर्जित होती है !

जलवायु

नींबू घास उष्ण एवं उपोषण दोनों प्रकार की जलवायु में सुचारू रूप से वृद्धि करती हैं ! समान रूप से वितरित 250 से 300 सेंटीमीटर वर्षा इसके लिए उपयुक्त होती है ! परंतु कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी वृद्धि अच्छी होती है ! यह प्रमुख रुप से वर्षा पर आधारित असिंचित दशा में उगाई जाती है !

भूमि

यह घास सभी प्रकार की मृदा में होती है ! परंतु जल भराव यह सहन नहीं कर सकती है ! अतः अच्छे जल निकास वाली भूमि का चयन करना आवश्यक होता है !

दोमट मृदा इसकी खेती के लिए बहुत उपयुक्त होती है ! ढलान वाले क्षेत्र जहां पर मृदा क्षरण अधिक होता है वहां पर इसकी रोपाई करने से मृदा क्षरण रुक जाता है ! 9.5 पीएच तक की मृदा में उगाई जा सकती है !
यह पहाड़ों की ढलानों के बंजर क्षेत्र में भी उगाई जा सकती है जहां पर अन्य फसलें नहीं उगाई जा सकती है !

उन्नत किस्में

सीमैप लखनऊ के द्वारा प्रगति एवं प्रमान दो किस्म विकसित की गई हैं तथा ओ.डी. 19 ओड़ाक्कली अरना कुलम केरल से विकसित की गई है!
सी. के. पी 25 संकर किस्म विकसित की गई है जिसमें तेल की मात्रा 0.5 से 1% तक होती है ! इसके अलावा सुगंधी, PRL-16, RRL-39 और कावेरी भी अच्छी किस्मे है !

बीज की मात्रा

एक हेक्टेयर में रोपाई करने हेतु( पौध) तैयार करने हेतु सीमैप की अनुशंसा के आधार पर चार से पांच किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है ! आई.सी.ए.आर की अनुशंसा के आधार पर 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है नर्सरी में पौध तैयार करके रोपाई की जाती है !

नर्सरी तैयार करना

अप्रैल-मई में नर्सरी तैयार करते हैं ! क्यारियां तैयार करके बीज बोना चाहिए ! एक सप्ताह में बीज उग आता है ! 60 दिन तक रोपणी में तैयार करके जुलाई में रोपाई करते हैं ! फसलों के कल्लो पुरानी फसलों के जड़दार कल्ले भी रोपित किए जाते हैं !

रोपने के लिए 50000 से 100000 कल्लो (स्लिप्स) की आवश्यकता होती है !

उर्वरक

इसकी फसल उर्वरक के बिना भी ली जा सकती है ! लेकिन अधिक लाभ लेने हेतु 75:30:30 किलोग्राम नाइट्रोजन फास्फोरस पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष देना आवश्यक है !

रोपण के पहले खेत तैयार करते समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा सुपर व पोटाश की संपूर्ण मात्रा देनी चाहिए ! शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा दो बार वृद्धि काल में एक बार पहली कटाई के लगभग एक माह पहले तथा दूसरी खुराक पहली कटाई के बाद दी जाए !

रोपाई का समय

वर्षा प्रारंभ होने पर जुलाई के प्रथम सप्ताह में रोपाई करनी चाहिए ! सिंचित दशा में रोपाई फरवरी-मार्च में भी की जा सकती है !

रोपाई की दूरी व विधि

50 सेंटीमीटर से 75 सेंटीमीटर कतारों में अंतर तथा 30 सेंटीमीटर से 40 सेंटीमीटर पौधे के बीच में अंतर रखें ! जड़ दार कल्लो (स्लिप्स) को 5 से 8 सेंटीमीटर गहराई तक रोपे तथा अच्छी तरह दबा दें !
अधिक गहराई पर लगाने से जड़े सड़ जाती हैं ! रोपने के तुरंत बाद यदि वर्षा ना हो तो सिंचाइ करें सिंचाइ करें !

निंदाई

प्रारंभिक अवस्था में यदि खरपतवार हो तो निंदाई करना आवश्यक होता है ! उसके बाद घास अधिक बढ़ जाती है वह खरपतवार को दबा लेती है ! खरपतवार नाशक दवाओं जैसे ओक्सीफ्लोरफेन 0.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या डाइयूरान 1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से उपचार करके खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है !

सिंचाई

इस फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है ! परंतु अधिक उत्पादन लेने हेतु शुष्क ऋतुओं में सिंचाई करना आवश्यक है !  प्रत्येक कटाई के बाद एक सिंचाई अवश्य करें ! फसल को सतह से 10 से 15 सेंटीमीटर ऊपर काटा जाता है ! ग्रीष्मकाल में 15 दिन के अंतर से सिंचाई करें !

कटाई

पहली कटाई 3 महीने के बाद की जाती है ! उसके बाद दो से ढाई महीने में कटाई जाती है ! मृदा के उपजाऊपन तथा उर्वरक की मात्रा के आधार पर कटाई की संख्या बढ़ जाती है ! उसके बाद के प्रत्येक वर्ष में 4 कटाई की जाती है जो 5 वर्षों तक ली जाती है !  असिंचित दशा में ग्रीष्मकाल में कटाई नहीं ली जा सकती है !

उपज

हरी घास का उपयोग तेल निकालने में होता है ! पत्ती तना व् पुष्प क्रम में तेल पाया जाता है ! अत: पूरा उपरी भाग आवसन के लिए उपयोगी होता है !
10 से 25 टन प्रति हेक्टेयर निम्बू घास पैदा होती है ! जिस से 60 से 80 किलो ग्राम तेल प्रति हेक्टेयर मिलता है ! घास के तजा वजन के आधार पर 0.35 प्रतिशत तेल उपलब्ध होता है !

आसवन 

जल वाष्प के द्वारा आवसन किया जाता है ! 4 घंटे में अवसान पूर्ण हो जाता है ! वाष्प 40 से 100 पौंड प्रति इंच दबाव पर आवसन कक्ष में प्रेषित की जाती है !
तेल का मूल्य – रूपए 750 से 800 प्रति किलोग्राम की दर से 50 हज़ार से 64 हज़ार प्रति हेक्टेयर !

कुल खर्च                                                    रूपए
1 बीज 5 किलो ग्राम                                             3000 रूपए
2 नर्सरी तैयार करना                                             1500 रूपए
3 खेत की तैयारी                                                  500 रूपए
4 रोपाई 10 मजदुर                                              1000 रूपए
5 उर्वरक                                                            1500 रूपए
6 निंदाई 20 मजदुर                                              2000 रूपए
7 सिचाई 3 बार                                                    500 रूपए
8 कटाई 20 मजदुर                                              1600 रूपए
9 घास की दुलाई व् आसवन 200/टन                      5000 रूपए
10 रखरखाव                                                       500 रूपए
11 विपणन                                                          300 रूपए
12 अन्य ब्याज                                                     2000 रूपए
                                                                                                   
                                                       कुल योग  = 19400/-

शुद्ध लाभ – 30000 से 45 हज़ार प्रति हेक्टेयर प्रथम वर्ष के बाद 50 से 60 हज़ार चार वर्ष तक !

Khas ki Kheti - Vetiver farming in Hindi

Khas ki Kheti - Vetiver farming in Hindi

Khas ki Kheti - Vetiver farming

( Vetiveria zizanioides ) खस बहुवर्षीय घास होती है ! इसकी ऊंचाई 2 से 3 मीटर होती है ! यह वर्षा ऋतु में अधिक वृद्धि करती है ! तथा अक्टूबर नवम्बर में फूल आते है ! इसमें शीत व् ग्रीष्म में बहुत कम वृद्धि होती है !
खस का उपयोग
1)     खस की जड़ स्पंजी होती है जिसमे सुगन्धित तेल होता है !
2)     इसका उपयोग इत्र (परफ्यूम) , कॉस्मेटिक, अगरबत्ती, दवाई व् शरबत बनाने में होता है !
3)     तम्बाकू, पानमसाला एवं शीतल पेय पदार्थो में भी इसका इस्तेमाल होता है !
4)     खस की जड़ की चटाई बनती है जो पर्दे के रूप में गर्मियों में इस्तेमाल होती है ! इस पर्दे में से निकलकर हवा ठंडी और सुगन्धित हो जाती है !

भूमि

यह घास जल लग्र वाली भूमि में प्राकृतिक रूप से होती है ! तालाबो, नदी, नालो, व् अन्य क्षेत्र जहाँ पर भूमि में नमी अधिक पाई जाती है उपयुक्त होती है ! लेकिन यह घास जल मग्न दशा में नही होती है ! यह सभी प्रकार की मिटटी में हो जाती है ! 

इसकी पैदावार बलुई से दोमट, कछारी, उपजाऊ मिटटी में अधिक होती है ! इस घास की जडो में भूमि कटाव को रोकने की अधिक क्षमता होती है ! इसलिए यह भूमि की ढलानों पर, नदी के जल ग्रहण क्षेत्रो में मृदाक्षरण रोकने हेतु रोपित की जाती है ! 

दक्षिणी राज्यों में इसकी खेती उपयुक्त जल निकास वाली रेतीली दोमट मिटटी में की जाती है !

जलवायु

यह घास उष्ण एवं उपोषण जलवायु में प्राकृतिक रूप से होती है ! यह कम वर्षा वाले (100 cm) क्षेत्र व् अधिक वर्षा (200 cm ) वाले दोनों क्षेत्रो में होती है ! यह भारत के दक्षिणी भाग में प्रमुखत: आंध्रप्रदेश तथा महाराष्ट्र व् मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश व् राजस्थान में प्राकृतिक रूप से पाई जाती है !

इसकी खेती केरल के त्रिचुर, पालघाट, विनाद व् त्रिवेन्द्रम जिलो में, तमिलनाडु के तिरुनलवे, मदुरई व् कोयम्बटूर जिलो में, आंध्रप्रदेश के कर्नूल तथा गोदावरी जिले में की जाती है ! 

अधिकांश तेल प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली खस से प्राप्त होता है जो राजस्थान के भरतपुर जिले तथा उत्तरप्रदेश के मूसानगर, विसबन व् नवाबगंज में मिलती है !

किस्मे

के. एस -1, के एस – 2, धारिणी, केशरी, गुलाबी, सिम-वृद्धि, सीमैप खस -15, सीमैप खस -22, खुशनालिका एवं सुगंधा प्रमुख किस्मे सीमैप से विकसित की गई है ! 

हाइब्रिड 8 व् हाइब्रिड 7 आई. ए. आर. आई द्वारा विकसित की गई है !

स्लिप की संख्या

80000 प्रति हेक्टेयर

रोपने की दुरी

35 से 45 cm

रोपाई का समय व् विधि

मानसून की वर्षा शुरू होने पर खेत तैयार करने के बाद बीज की कतारों में बुवाई कर दी जाती है ! स्लिप लगाने के लिए 50 cm के अंतर से खेत में मेड बना ले ! मेड के दोनों तरफ 24 से 30 cm के अंतर से स्लिप लगा देते है ! सिंचित दशा में ग्रीष्म ऋतू के प्रारम्भ में स्लिप को नालियों में लगाते है !

खाद / फ़र्टिलाइज़र

10 से 12 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद या कम्पोस्ट तथा राख एवं मूंगफली की खली रोपाई के समय देते है ! नाइट्रोजन 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर 1 महीने बाद देते है !

खुदाई / कटाई

18 से 24 महीने के बाद जडो की खुदाई शुष्क मौसम में की जाती है ! 15 से 20 cm की ऊंचाई से तना काटकर अलग कर दिया जाता है ! उसके बाद खुदाई की जाती है ! व् जडो को निकाल लेते है ! मिटटी को पुन: गहरी खोदते है जिससे बची हुई जड़े निकल जाती है !

पैदावार / उपज

3 से 5 टन ताजी जड़े प्रति हेक्टेयर पैदा होती है ! तेल की मात्रा 0.4 से 0.6 % होती है ! 12 से 17 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर खस का तेल मिलता है ! कुल खर्च 30 हज़ार प्रति हेक्टेयर के लगभग होता है ! 
  1. कुल आय – तेल 10000 से 12000 रूपए प्रति किलो तक बिकता है ! 
  2. सुखी जड़े 100 रूपए किलो तक बिक जाती है ! 
  3. इस प्रकार प्रति हेक्टेयर 2 से 2.5 लाख की कमाई की जा सकती है ! यह लाभ दो वर्षो में मिलता है !

आमा हल्दी की खेती Amba haldi kheti in hindi

आमा हल्दी की खेती Amba haldi kheti in hindi

                                 आमा हल्दी की खेती


आमा हल्दी को अम्बा हल्दी (amba haldi) या  mango ginger भी कहा जाता है जिसका वानस्पतिक नाम कुरकुमा एमाडा (Curcuma amada)  है तथा  यह जिंजीवरेशी (Zingiberaceae) कुल की सदस्य है ! 



इसको बंगाली में अमाडा, गुजराती में सफ़ेद हलधर, कन्नड़ में अम्बरासिन्ना या हुलिअरासिना, मलयालम व् तमिल में मांगा इंजी, तेलुगु में ममोड़ी इलाम कहते है !

यह एक आयुर्वेदिक मसाले वाली फसल है इसका इस्तेमाल हड्डियों के दर्द, त्वचा की खुजली, भूख बढ़ाने, खांसी व् चोट के घावो को ठीक करने में किया जाता है !

आमा हल्दी (amba haldi) का उत्पादन आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा, बिहार, तामिलनाडु, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश एवं म.प्र. के कुछ स्थानों पर भी इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा रही है !

यह पौधा हल्दी की तरह ही होता है और ऊंचाई में 2 से 3 फीट होता है और इसकी खुसबू कच्चे आम जैसी होती है ! ये पौधा इंडोनेशिया और चाइना से सम्बन्ध रखता है !
केमिकल

आमा हल्दी के कंद में फयटोस्टेरोल (Phytosterol) व् curcumin केमिकल होता है ! इसके कंद में 1.1 एसेंशियल आयल, रेसिन, गम, स्टार्च, सुगर, अल्बुमिनोइड, क्रूड फाइबर, आर्गेनिक एसिड, dcomphor, 1 beta curcumne, mycrene और cicimene होता है !

जलवायु और तापमान

गर्म एवं नम् जलवायु वाले स्थानों में आमा हल्दी (amba haldi) की पैदावार अच्छी होती है। इसके साथ ही समुद्र तल से 1300 मीटर की ऊंचाई ले स्थानों पर भी आमा हल्दी (amba haldi) का सफल उत्पादन किया जा सकता है । अम्बा हल्दी (amba haldi) उत्पादन में तापक्रम का विशेष महत्व है। भरपूर उत्पादन के लिये 12 से.ग्रे से तापक्रम कम नही होना चाहिए !

भूमि की तैयारी

आमा हल्दी (amba haldi) की खेती के लिये दोमट या रेतीली दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है ! इसके साथ ही जल निकास की व्यवस्था भी उचित होना चाहिये। आमा हल्दी (amba haldi) की बुवाई के पूर्व अप्रैल या मई माह में खेतों की अच्छी तरह से गहरी जुताई कर लेना चाहिये ताकि मिट्टी पलट जाये फिर 5-6 जुताई करके पीटा चलाये ताकि मिटटी भुरभुरी एवं एकसार हो जाए।

बीज की बुवाई

आमा हल्दी (amba haldi) की बुवाई का उपयुक्त समय जून से लेकर जुलाई तक रहता है ! इसकी बुवाई के लिये बीज के रूप में प्रकद (rhizomes) का प्रयोग किया जाता है प्रकंद (rhizomes) पुरे या टूटे हुए प्रकंद जिनका वजन 35 से 44 ग्राम होता है बोनी के लिए उपयुक्त होते हैं। प्र

कंदों (rhizomes) को बोंने के पूर्व 0.3 % डायथेन एम-45 और 0.5% मेलाथियान के घोल मे 30 मिनिट तक डुबाना चाहिए। इसकी बोनी फ्लेट बेड़ रिज एवं फरो दोनों तरीके से भारत वर्ष में की जाती है। जमीन 25 से 30 से.मी. की दूरी पर बोया जाता है। रिज़ एवं फरो तरीके से बोनी करने पर कतार से कतार की दुरी 25 से.मी. एवं पौधो से पौधों की दूरी 25 से.मी. रखनी चाहिए।

बीज की मात्रा

8-10 क्विंटल प्रकंद (rhizomes) प्रति हेक्टेयर

खाद एवं उर्वरक

हल्दी (amba haldi) की खेती के लिये खाद एवं उर्वरक की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है क्योकि यह हल्दी भूमि में उगाई जाती है । खाद एवं उर्वरक का प्रति हेक्टेयर मात्रा निम्ननुसार है।

1.    गोबर की खाद कम्पोस्ट 30 क्विंटल
2.    अमोनियम सल्फेट 200 किलो
3.    म्यूरेट ऑफ पोटाश 150 किलो
4.    सुपर फासफेट 200 किलो
5.    युरिया 65 (टॉप ड्रेसिंग)

सिंचाई

गर्मियों में 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई की जाती है, अर्थात् भूमि में नमी की पर्यात मात्रा होना चाहिये।

निंदाई गुड़ाई

भरपुर पैदावार लेने के लिये कम से कम 2-3 बार निदाई गुड़ाई की आवश्यकता होती है ! इसके साथ किन्दों की अच्छी बढवार के लिये मिट्टी भी चडाना आवश्यक है।

कटाई

आमा हल्दी बोने के 9 माह के बाद कटने के लिये तैयार हो जाती है और हाथ से प्रकंदों को चुन लिया जाता है। प्रकंदों की मिट्टी हटाने के लिए इसे पानी से धोया जाता है।

आमा हल्दी से कमाई (amba haldi) मूल्य

आमा हल्दी मार्किट में 100 से 150 रूपए प्रति किलो तक बिक जाती है ! अभी का रेट जानने के लिए यहाँ क्लिक करे ....aama haldi (amba haldi price)

उपजः

आमा हल्दी (amba haldi) की अच्छी पैदावार लेने के लिए उपजाऊ भूमि, उन्नत जाति तथा फसल की उचित देखभाल की आवश्यकता होती है। वैसे औसत उपज 200-250 क्विंटल कच्ची हल्दी तथा 40-50 क्विंटल सूखी आमा हल्दी प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है !
आमा हल्दी के प्रकदों को पानी में बाल कर सूरज की गर्मी में सुखाया जाता है।

कीट एवं रोग

अन्य कंद फसलों की तुलना में हल्दी की फसल में कीट एवं व्याधि का प्रकोप कम होता है।

कीट- तना छेदक

जैसा की नाम से ही ज्ञात है कि इस कीट की सूड़ियां तने के अंदर ही अन्दर छेद कर बढ़ती जाती हैं जिसके परिणाम स्वरूप तना सूख जाता है।

रोकथाम

इसकी रोकथाम के लिये सूखे एवं ग्रसित तनों को काट कर या उखाड़कर खेत में बाहर नष्ट कर देना चाहिये।

रोग या व्याधिः

रोग एवं व्याधि का प्रकोप भी कम ही होता है।

प्रकंद एवं जड़ विगलन

इस रोग का कारक पीथियम एफेनीड रमेटम नामक फफूदी है इस रोग में पहले पत्तियों पीली पड़ती हैं और फिर धीरे-धीरे पूरा पौधा पीला पड़ जाता है इसके साथ ही भूमि के समीप का भाग नीला एवं कोमल हो जाता है। और प्रकंद भी सड़ जाता है। और पौधे को खींचने पर पौधा हाथ में आ जाता है तथा सड़ा हुआ प्रकंद जमीन के अंदर ही रह जाता है।

पत्तियों के धब्बा रोग

यह रोग टेफरीनां तथा कोलेटोट्राईकम आदि फफूदों के द्वारा फैलते हैं, रोग की तीव्रता में पत्तियों पीली पड़कर सुख जाती हैं तथा उपज में भारी कमी आती है।

रोकथाम

जड़ विगलन तथा धब्बा रोगों की रोकथाम के लिए बोर्डो मिश्रण (1 प्रतिशत) से कम से कम 3 छिड़काव 15-15 दिन के अंतराल से करना चाहिये।